आनन्द की खोज, पागल पथिक कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी, गद्य गरिमा UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi Chapter 6 आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)

आनन्द की खोज, पागल पथिक कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी, गद्य गरिमा UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi Chapter 6 आनन्द की खोज, पागल पथिक

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आनन्द की खोज, पागल पथिक कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी, गद्य गरिमा UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi  Chapter 6 आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)

लेखक का साहित्यिक परिचय और भाषा-शैली


प्रश्न:
राय कृष्णदास जी का साहित्यिक परिचय दीजिए।
या
राय कृष्णदास की भाषा-शैली की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
राय कृष्णदास का जीवन-परिचय लिखते हुए उनकी कृतियाँ भी लिखिए तथा भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हिन्दी में गद्य को काव्य जैसी मधुरता प्रदान करने वाले और अपनी अनुभूतियों और भावनाओं को कवित्व का रूप प्रदान करने वाले राय कृष्णदास, गद्यगीतों के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने जीव और परमात्मा के बीच की क्रीड़ाओं का मनमोहक ढंग से, प्रिय और प्रिया की आँख-मिचौनी के रूप में सजीव चित्र अंकित किया है।

राय कृष्णदास का जीवन-परिचय-

राय कृष्णदास का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित अग्रवाल परिवार में सन् 1892 ई० में हुआ था। यह परिवार कला, संस्कृति और साहित्य-प्रेम के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता राये प्रहाददास; भारतेन्दु जी के सम्बन्धी तथा आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के परम मित्र थे। ये काव्यकला के मर्मज्ञ और साहित्यप्रेमी व्यक्ति थे। इस प्रकार राय कृष्णदास को कला और साहित्य-प्रेम पितृदाय रूप में प्राप्त हुआ था। फलतः ये अपने पिता के संस्कारों और साहित्यकार सहयोगियों के सम्पर्क में आकर आठ वर्ष की आयु में ही कविता करने लगे थे।
राय कृष्णदास की स्कूली शिक्षा अधिक समय तक न चल सकी, परन्तु उत्कट ज्ञान-पिपासा के कारण इन्होंने घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषाओं का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन किया। तदनन्तर विविध प्रकार से हिन्दी-साहित्य की सेवा करते हुए सन् 1980 ई० में इनकी मृत्यु हो गयी। इसी वर्ष (सन् 1980 ई०) की 26 जनवरी को भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से अलंकृत भी किया था।

साहित्यिक सेवाएँ:

राय कृष्णदासं हिन्दी-साहित्य के भावुक कवि, कहानीकार, निबन्धकार एवं प्रसिद्ध गद्यगीतकार होने के साथ-साथ प्राचीन भारतीय कला एवं संस्कृति के संरक्षक और पुरातत्त्व के मर्मज्ञ विद्वान् भी थे।

हिन्दी-साहित्य में अपने गद्यगीतों के लिए प्रसिद्ध राय कृष्णदास ने हिन्दी-गद्य को नये आयाम प्रदान कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया। काशी के साहित्यिक वातावरण में, महान् साहित्यकारों की वरद् छाया में इनका पालन-पोषण हुआ था। साहित्य और कला की अमर संजीवनी से इनका जीवन आप्लावित था। इनकी कविताएँ, कहानियाँ और क्बिन्ध ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होते थे। जयशंकर प्रसाद और कवीन्द्र रवीन्द्र से प्रभावित होने के कारण इनकी रचनाओं में सर्वत्र आध्यात्मिकता, भावुकता और हृदय की कोमल अनुभूतियाँ विद्यमान हैं। इनकी कहानियों में सात्त्विक भावों और मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति की गयी है। संवाद शैली में लिखे गये इनके निबन्धों में भावात्मकता विद्यमान है।

साहित्य-सेवा के साथ-साथ इन्होंने भारतीय कला के उत्थान और विकास के लिए भारत कला भवन’ नामक विशाल संग्रहालय का निर्माण कराया। इन्होंने भारतीय कलाओं पर प्रामाणिक इतिहास और अन्य ग्रन्थों की रचना करके अपने कला-प्रेम को प्रदर्शित किया है। राय कृष्णदास ने भारतीय भूगोल और पौराणिक वंशावली पर शोधपूर्ण निबन्धों की रचना की। ‘गद्य गीत’ विधा के प्रवर्तक राय कृष्णदास जी के गद्य-गीतों में पद्य की तरह तुक तो नहीं है, परन्तु लय और पूर्ण संगीतात्मकता विद्यमान है। इनका शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास एवं अलंकारों का प्रयोग भव्य है। इनके गद्यगीत सरल, सरस और आकार में लघु हैं। इस प्रकार राय कृष्णदास भावुक कवि, मर्मज्ञ कलाकार, गद्यगीत प्रवर्तक, कहानीकार, पुरातत्त्व और इतिहास के प्रकाण्ड पण्डित एवं महान् साहित्यकार थे।

रचनाएँ:

राय कृष्णदास ने कविता, कहानी, निबन्ध, गद्यगीत, कला, इतिहास आदि सभी क्षेत्रों में अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नलिखित है

(1) कविता – संग्रह-ब्रज भाषा में ‘ब्रजराज’ तथा खड़ी बोली में ‘भावुक हैं। ‘भावुक’ काव्य-संग्रह पर छायावाद का स्पष्ट प्रभाव है।
(2) गद्यगीत – इनके गद्यगीतों के संग्रह ‘छायापथ’ और ‘साधना’ के नाम से प्रकाशित हुए हैं। ‘साधना’ के निबन्धों में जीव और परमात्मा के बीच की क्रीड़ाओं का, प्रिय और प्रिया की आँख – मिचौनी के रूप में मनमोहक और सजीव चित्रण किया गया है।
(3) निबन्ध-संग्रह – ‘संलाप’ और ‘प्रवाल’ संवाद शैली के इनके निबन्धों का संग्रह है।
(4) कहानी-संग्रह – ‘अनाख्या’, सुधांशु’ और ‘आँखों की थाह’।।
(5) अनुवाद – खलील जिब्रान के ‘दि मैडमैन’ को ‘पगला’ नाम से हिन्दी रूपान्तर।
(6) कला-इतिहास – ‘भारत की चित्रकला’ और ‘भारतीय मूर्तिकला’। ये भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला के इतिहास से सम्बन्धित प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने प्राचीन भारतीय भूगोल एवं पौराणिक वंशावली पर भी शोध-निबन्ध लिखे हैं।

भाषा और शैली


(अ) भाषागत विशेषताएँ:
राय कृष्णदास जी की भाषा शुद्ध, परिमार्जित एवं तत्सम शब्दावली से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली है। बीच-बीच में तद्भव और देशज शब्दों के प्रयोग से इनकी भाषा सरल और व्यावहारिक हो गयी है। इन्होंने यत्र-तत्र उर्दू-फारसी के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है। मुहावरों के प्रयोग से इनकी भाषा में सजीवता और प्रवाह उत्पन्न होता है। इनका वाक्य-विन्यास सुगठित, शब्द-चयन सटीक और अलंकारों का प्रयोग भव्य है। कवित्वपूर्ण होते हुए भी इनकी भाषा सहज और सरल है।

(ब) शैलीगत विशेषताएँ:
राय कृष्णदास भावुक रचनाकार हैं; अतः इनकी शैली में काव्यमयता, भावुकता, सांकेतिकता एवं अनुभूति की प्रबलता विद्यमान है। इनके गीत इस बात का प्रमाण कि आधुनिक गद्यप्रधान युग में गद्य ने पद्य को भी आत्मसात् कर लिया है। भले ही इनके गद्यगीतों को विधिवत् गाया न जा सके, परन्तु गुनगुनाया तो अवश्य जा सकता है। इनकी रचनाओं में निम्नलिखित शैलियों की प्रधानता है

(1) भावात्मक शैली:
राय कृष्णदास हिन्दी में कवित्वपूर्ण भावात्मक गद्य के सम्राट माने जाते हैं। उनके गद्य में एक सहज मधुरता, भावुकता और कवित्वपूर्ण सौन्दर्य सर्वत्र विद्यमान है।

(2) चित्रात्मक शैली:
प्रकृति चित्रण के सन्दर्भ में राय कृष्णदास जी प्रकृति का ऐसा मार्मिक धरातल प्रस्तुत करते हैं कि एक सौन्दर्यमय दृश्य आँखों के आगे साकार हो उठता है। इस शैली की भाषा में भावुकता पाठक के मन में आह्लाद उत्पन्न करती है।

(3) संवाद शैली:
‘संलाप’ तथा ‘प्रवाल’ में सभी निबन्ध संवाद शैली में लिखे गये हैं। ये संवाद बड़े मार्मिक, भावपूर्ण एवं प्रभावशाली हैं।

(4) आलंकारिक शैली:
राय कृष्णदास की प्राय: सभी रचनाओं में आलंकारिक शैली के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा चमत्कारपूर्ण और प्रवाहपूर्ण होती है।

(5) गवेषणात्मक शैली:
लेखक ने प्राचीन काल के इतिहास की खोज सम्बन्धी रचनाओं में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर एवं गहन होते हुए भी क्लिष्टता से रहित है तथा तार्किकता से युक्त होते हुए। भी इसमें सरसता विद्यमान है।

(6) विवरणात्मक शैली:
लेखक ने अपनी कहानियों में कथा-प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए विवरणात्मक शैली को अपनाया है। इसमें घटना और तथ्यों का विवरण सजीव तथा भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण होती है। इसमें वाक्य। छोटे-छोटे हैं तथा आलंकारिकता और भावुकता का पुट सर्वत्र देखने को मिलता है।

साहित्य में स्थान:
हिन्दी में गद्यगीत’ विधा के प्रवर्तक राय कृष्णदास जी की रचनाओं में भावुकता, कवित्व, आलंकारिकता एवं चित्रात्मकता के ऐसे गुण विद्यमान हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। इनकी काव्यात्मक भावपूर्ण शैली में दार्शनिक अनुभूति के समन्वय ने चार चाँद लगा दिये हैं। राय कृष्णदास निश्चय ही हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ गद्यगीत लेखक रहे हैं।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर


प्रश्न-दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए

प्रश्न 1:
अन्त को मुझसे न रहा गया। मैं चिल्ला उठा-आनन्द, आनन्द; कहाँ है आनन्द! हाय! तेरी खोज में मैंने । व्यर्थ जीवन गॅवाया। बाह्य प्रकृति ने मेरे शब्दों को दुहराया, किन्तु मेरी आन्तरिक प्रकृति स्तब्ध थी। अतएव मुझे अतीव आश्चर्य हुआ। पर इसी समय ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण सजीव होकर मुझसे पूछ उठा-क्या कभी अपने-आप में भी देखा था? मैं अवाक् था।

(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) अंन्त में लेखक क्यों चिल्ला उठा?
(iv) किसने लेखक के शब्दों को दुहराया?
(v) लेखक कब अवाक् था?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा राय कृष्णदास द्वारा लिखित ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ शीर्षक गद्यगीत से अवतरित है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
पाठ का नाम – आनन्द की खोज, पागल पथिक।
लेखक का नाम – राय कृष्णदास।
[संकेत – इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – जब लेखक बाह्य जगत् में आनन्द की खोज में भटकते-भटकते थक गया और उसे कहीं भी आनन्द नहीं मिला, तब उसकी आत्मा से अज्ञान का आवरण हट गया। अब
उसने समझा कि उसने इतना मूल्यवान समय व्यर्थ के प्रयत्न में खो दिया है।

(iii) आनन्द की खोज में बाह्य जगत् में भटकने पर लेखक को आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। इन सभी क्रियाओं से अन्ततः निराश होकर उससे रहा न गया और वह चिल्ला उठा।
(iv) बाह्य प्रकृति ने लेखक के शब्दों को दुहराया।
(v) जब ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण सजीव होकर उससे पूछ उठा-क्या कभी अपने-आप में भी देखा था? तब लेखक अवाक् था।

प्रश्न 2:
भला इस विश्वमण्डल के बाहर तुम जा कैसे सकते हो? तुम जहाँ से चलोगे फिर वहीं पहुँच जाओगे। यह तो घटाकार न है। फिर, तुम उस स्थान की कल्पना तो इसी आदर्श पर करते हो और जब तुम्हें इस भूल ही में सुख नहीं मिलता तब अनुकरण में उसे कैसे पाओगे? मित्र, यहाँ तो सुख के साथ दु:ख लगा है और उससे सुख को अलग कर लेने के उद्योग में भी एक सुख है। जब उसे ही नहीं पा सकते तब वहाँ का निरन्तर सुख तो तुम्हें एक अपरिवर्तनशील बोझ, नहीं यातना हो जायेगी। अरे, बिना नव्यता के सुख कहाँ? तुम्हारी यह कल्पना और संकल्प नितान्त मिथ्या और निस्सार है, और इसे छोड़ने ही में तुम्हें इतना सुख मिलेगा कि तुम छक जाओगे।’

(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) संसार का आकार कैसा है?
(iv) लेखक ने भूल किसे बताया है?
(v) इस संसार में कौन किसके साथ लगा है और उसके किस उद्योग में सुख है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – तुम सोचो कि बिना नवीनता के भी कहीं सुख मिलता है? अर्थात् सुख के लिए नवीनता आवश्यक है; अत: तुम्हारी कल्पना बिल्कुल झूठी और व्यर्थ है, इसलिए तुम पूर्ण सुख को प्राप्त करने की कल्पना त्याग दो। ऐसा करने से तुम्हें इसी संसार में इतना सुख मिलेगा कि तुम पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाओगे, लेकिन वह सुख तुम्हें अपने अन्दर मिलेगा, बाहर नहीं। उसे अपने भीतर ही खोजना पड़ेगा। तुम यही करो।
(iii) संसार का आकार घट जैसा है।
(iv) लेखक ने बाह्य जगत की कल्पना को भूल बताया है।
(v) इस संसार में सुख के साथ दु:ख लगा है और उससे सुख को अलग कर लेने के उद्योग में सुख है।

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