मलिक मुहम्मद जायसी कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी काव्यांजलि | UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi Chapter 2

मलिक मुहम्मद जायसी कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी काव्यांजलि | UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi Chapter 2

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मलिक मुहम्मद जायसी कक्षा 11 साहित्यिक हिंदी काव्यांजलि | UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi Chapter 2


कवि-परिचय एवं काव्यगत विशेषताएँ


प्रश्न:
मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय लिखिए।
या
मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय देते हुए उसकी रचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी प्रेम की पीर’ के गायक के रूप में विख्यात हैं और हिन्दी के गौरव ग्रन्थ ‘पद्मावत’ नामक प्रबन्ध काव्य के रचयिता हैं। ये हिन्दी-काव्य की निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के सर्वाधिक प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं।

मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय -
जायसी के अपने कथन के अनुसार उनका जन्म 900 हिजरी (1492 ई० ) में हुआ था – ‘भा औतार मौर नौ सदी।’ जायसी को जन्म-स्थान रायबरेली जिले का जायस नामक स्थान था, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है – जायसनगर मोर अस्थानू। इसी कारण ये ‘जायसी’ कहलाए। इनके पिता का नाम शेख ममरेज था। इनके माता-पिता की मृत्यु इनके बचपन में ही हो गयी थी। फलत: ये फकीरों और साधुओं के साथ रहने लगे। जायसी का व्यक्तित्व आकर्षक न था। इनके बायें कान की श्रवण-शक्ति एवं बायीं आँख सम्भवतः चेचक से जाती रही थी, जिसका उल्लेख इन्होंने स्वयं ‘पद्मावत’ में किया है-मुहम्मद बाईं दिसि तजा, एक सरवन एक आँखि। जायसी के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गये। शेरशाह उनके कुरूप चेहरे पर हँस पड़ा। इस पर कवि ने बड़े शान्त भाव से पूछा-‘मोहिका हँसेसि कि कोहरहि?’ अर्थात् तुम मुझ पर हँसे थे या उस कुम्हार (सृष्टिकर्ता ईश्वर) पर? इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर इनसे क्षमा माँगी थी। कवि जायसी का कण्ठस्वर बड़ा ही मीठा था और काव्य था ‘प्रेम की पीर’ से लबालब भरा हुआ। मुख की कुरूपता को देखकर जो हँसे थे, वे ही इस प्रेमकाव्य को सुनकर आँसू भर लाये-जेइमुख देखा तेइ हँसा, सुना तो आये आँसु। कवि का आध्यात्मिक अनुभव बहुत बढ़ा-चढ़ा था। सूफी मुसलमान फकीरों के अतिरिक्त कई सम्प्रदायों (जैसे—गोरखपन्थी, रसायनी, वेदान्ती आदि) के हिन्दू साधुओं के सत्संग से इन्हें हठयोग, वेदान्त, रसायन आदि से सम्बद्ध बहुत-सा ज्ञान प्राप्त हो गया था, जो इनकी रचना में सन्निविष्ट है। इन्हें इस्लाम और पैगम्बर पर पूरी आस्था थी। ये निजामुद्दीन औलिया की शिष्य-परम्परा में थे। ये बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय के बड़े ही सिद्ध और पहुँचे हुए फकीर माने जाते थे। सच्चे भक्त का प्रधान गुण प्रेम इनमें भरपूर था। अमेठी के राजा रामसिंह इन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे।

जीवन के अन्तिम दिनों में ये अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। यहीं पर एक शिकारी की गोली से इनकी मृत्यु हो गयी। इनका निधन 949 हिजरी अर्थात् सन् 1542 ई० में हुआ बताया जाता है।
रचनाएँ जायसी की तीन रचनाएँ प्रामाणिक रूप से इन्हीं की मानी जाती हैं। ये हैं – पद्मावत, अखरावट और आखिरी कलाम।

पद्मावत: जायसी की कीर्ति का मुख्य आधार ‘पद्मावत’ नामक प्रबन्ध काव्य है, जो हिन्दी में अपने ढंग का अनोखा है। यह एक प्रेमाख्यानक काव्य है, जिसका पूर्वार्द्ध कल्पित और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक है। पूर्वार्द्ध में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमगाथा है। सूफी सिद्धान्तानुसार कवि ने रत्नसेन को साधक और पद्मावती को ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया है। रत्नसेने अनेक बाधाओं को पार करता और कष्टों को सहता हुआ अन्त में पद्मावती को प्राप्त करता है। उत्तरार्द्ध में पद्मिनी और अलाउद्दीन वाली ऐतिहासिक गाथा है। इस भाग में पद्मावती ब्रह्म रूप में नहीं, प्रत्युत एक सामान्य नारी के रूप में प्रस्तुत की गयी है।

आखिरी कलाम – यह रचना दोहे-चौपाइयों में और बहुत छोटी है। इनमें मरणोपरान्तं जीव की दशा और कयामत (प्रलय) के अन्तिम न्याय आदि का वर्णन है।

अखरावट – इसमें वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर इस्लामी सिद्धान्त-सम्बन्धी कुछ बातें कही गयी हैं। इसमें ईश्वर, जीव, सृष्टि आदि से सम्बन्धित दार्शनिक वर्णन है।

चित्ररेखा – यह ‘प्रेमकाव्य है, जिसमें कन्नौज के राजा कल्याणसिंह के पुत्र राजकुमार प्रीतम सिंह तथा चन्द्रपुर-नरेश चन्द्रभानु की राजकुमारी चित्ररेखा की प्रेमकथा वर्णित है।

काव्यगत विशेषताएँ

भावपक्ष की विशेषताएँ

रस-योजना -‘पद्मावत’ प्रबन्ध काव्य होते हुए भी एक श्रृंगारप्रधान प्रेमकाव्य है; अतः श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन इसमें मिलता है। यद्यपि अन्य रसों की भी योजना की गयी है, परन्तु गौण रूप में ही। ये गौण रस हैं–करुण, वात्सल्य, वीर, शान्त और अद्भुत।

संयोग-पक्ष – जायसी के प्रमुख काव्य ‘पद्मावत’ में संयोग-पक्ष को उतना विशद् और विस्तृत चिंत्रण नहीं है, जितना वियोग-पक्ष का; क्योंकि संयोग-पक्ष से कवि के आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती थी। रहस्यवादी कवि होने के नाते इन्होंने रनसेन और पद्मावती को जीव और ब्रह्म का प्रतीक माना है। सूफी सिद्धान्त की दृष्टि से रत्नसेन और पद्मावती के संयोग-वर्णन को इन्होंने अधिक महत्त्व दिया है। संयोग के अन्तर्गत नवोढ़ा स्त्री की भावनाओं का अत्यधिक सुन्दर चित्र निम्नांकित पंक्तियों में मिलता है

हौं बौरी औ दुलहिन, पीउ तरुन सह तेज।
ना जानौं कस होइहिं, चढ़त कंते के सेज ॥

विरह-वर्णन – जायसी का विरह-वर्णन अद्वितीय है। नागमती और पद्मावती दोनों के विरह-चित्र हमें ‘पद्मावत’ में मिलते हैं। यद्यपि इस वर्णन, में अत्युक्तियों का सहारा भी लिया गया है, पर उसमें जो वेदना की तीव्रता है, वह हिन्दी-साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। उसका एक-एक पद विरह का अगाध सागर है। पति के प्रवासी होने पर नागमती बहुत दु:खी है। वह सोचती है कि वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जिनके पति उनके पास हैं

जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।
कन्त पियारा बाहिरे, हम सुख भूला सर्ब ।।

करुणरस – श्रृंगार के उपरान्त करुण रस का जायसी ने विशेष वर्णन किया है। करुणा का प्रथम दृश्य वहाँ आता है, जहाँ रत्नसेन योगी बनकर घर से निकलने लगता है और उसकी माता–पत्नी विलाप करती हुई उसे समझाती

रोवत मायन बहुरत बारा। रतन चला घर भा अँधियारा॥
रोवहिं रानी तजहिं पराना। नोचहिं बार करहिं खरिहाना ॥

रहस्यवाद – कविवर जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ नामक महाकाव्य में लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम का चित्रण किया है। ‘पद्मावत’ में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहाँ लौकिक पक्ष से अलौकिक की ओर संकेत किया गया है। नागमती का हृदयद्रावक सन्देश निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है ।

पिउ सौ कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा ! हे काग।
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग॥

प्रकृति-चित्रण – मानव-प्रकृति के चित्रण के अतिरिक्त जायसी ने बाह्य दृश्यों का भी बहुत ही उत्कृष्ट चित्रण किया है। यद्यपि इनके काव्य में प्रकृति का आलम्बन-रूप में चित्रण नहीं मिलता, तथापि उद्दीपन और मानवीकरण अलंकारों के रूप में प्रकृति के अनेक रम्य चित्र उपलब्ध होते हैं।
भावपक्ष के उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि जायसी वास्तव में रससिद्ध कवि हैं।

कलापक्ष की विशेषताएँ।

भावपक्ष के साथ ही जायसी का कलापक्ष भी पुष्ट, परिमार्जित और प्रांजल है, जिसका विवेचन निम्नवत् है

छन्दोविधान:
जायसी ने अपने काव्य के लिए दोहा-चौपाई की पद्धति चुनी है। इस पद्धति में कवि ने चौपाई की सात पंक्तियों के बाद एक दोहे का क्रम रखा है, जब कि तुलसी ने आठ पंक्तियों के बाद। इस छन्द-विधान के लिए जायसी तुलसी के पथ-प्रदर्शक भी माने जा सकते हैं।

भाषा:
जायसी की भाषा ठेठ अवधी है। इसमें बोलचाल की अवधी का माधुर्य पाया जाता है। इसमें शहद की। सहज मिठास है, मिश्री को परिमार्जित स्वाद नहीं। लोकोक्तियों के प्रयोग से इसमें प्राण-प्रतिष्ठा भी हुई है। कहीं-कहीं शब्दों को तोड़-मरोड़ दिया गया है और कहीं एक ही भाव या वाक्य के कई स्थानों पर प्रयुक्त होने के कारण पुनरुक्ति दोष भी आ गया है। भाषा की स्वाभाविकता, सरसता और मनोगत भावों की प्रकाशन-पद्धति ने जायसी को अवधी साहित्य के क्षेत्र में मान्य बना दिया है।

शैली:
काव्य-रूप की दृष्टि से जायसी ने प्रबन्ध शैली को अपनाया है। उस समय फारसी में मसनवी शैली और हिन्दी में चरितकाव्यों की एक विशेष शैली प्रचलित थी। जायसी ने दोनों का समन्वय कर एक नवीन शैली को जन्म दिया। ‘पद्मावत’ में शैली का यही मिश्रित-नवीन रूप मिलता है। ‘पद्मावत’ के आरम्भ में मसनवी शैली और भाषा, छन्द आदि में चरित-काव्य की शैली मिलती है। इन्होंने चौपाई और दोहा छन्दों में भाषा-शैली को सुन्दर निर्वाह किया है। समग्र रूप में जायसी की भाषा-शैली सरल, सशक्त एवं प्रवाहपूर्ण है।

अलंकार – अलंकारों का प्रयोग जायसी ने काव्य-प्रभाव एवं सौन्दर्य के उत्कर्ष के लिए ही किया है, चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नहीं। इनके काव्य में सादृश्यमूलक अलंकारों की प्रचुरता है। आषाढ़ के महीने के घन-गर्जन को विरहरूपी राजा के युद्ध-घोष के रूप में प्रस्तुत करते हुए बिजली में तलवार का और वर्षा की बूंदों में बाणों की कल्पना कर कितना सुन्दर रूपक बाँधा गया है

खड़गे बीजु चमकै चहुँ ओरा। बूंद बान बरसहिं घन घोरा॥

यहाँ रूपक के साथ-साथ अनुप्रास का भी सुन्दर एवं कलात्मक प्रयोग हुआ है।
साहित्य में स्थान – डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने जायसी की सराहना करते हुए लिखा है कि, “जायसी अत्यन्त संवेदनशील कवि थे। संस्कृत के महाकवि बाण की भाँति वे शब्दों के चित्र लिखने के धनी हैं। वे अमर कवि हैं।

पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न-निम्नलिखित पद्यांशों के आधार पर उनसे सम्बन्धित दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

नागमती-वियोग-वर्णन

प्रश्न 1:
नागमती चितउर पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ।।
नागर काहु नारि बस परा।   तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ।।
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ।।
भयउ नरायन बावन करा। राज करत रोजा बलि छरा ।।
करन पास लीन्हेछ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ।।
लै कान्हहिं भी अकरूर अलोपी । कठिन बिछोह जियहिं किमि गोपी ।।

सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ।
झुरि-झुरि पज़र हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) नागमती चित्तौड़ में किसकी राह देख रही है?
(iv) विष्णु ने वामन रूप धारण करके किसे छला था?
(v) किर कारण नागमती सूखकर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गयी है?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित एवं मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ महाकाव्य से उद्धृत है।। अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम – नागमती-वियोग-वर्णन।
कवि का नाम – मलिक मुहम्मद जायसी।
[संकेत – इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – नागमती चित्तौड़ में अपने पति राजा रत्नसेन की बाट जोह रही थी और
कहती थी कि सारस की जोड़ी में से एक (नर) को मारकर किस व्याध (बहेलिये) ने मादा को उससे अलग कर दिया है और यह विरहरूपी काल मुझे दे दिया है, जिसके कारण मैं सूखकर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गयी हूँ।
(iii) नागमती चित्तौड़ में अपने राजा रत्नसेन की राह देख रही है।
(iv) विष्णु ने वामन रूप धारण करके राजा बलि को छला था।
(v) नागमती अपने प्रीतम से अलग होकर विरह काल के कारण सूखकर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गयी है।

प्रश्न 2:
पाट महादेइ ! हिये न हारू । समुझि जीउ चित चेतु सँभारू ।।
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ।।
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास बाँधु मन थीती ।।
धरतिहिं जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ।।
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली । सो रसे सो मधुकर सो बेली ।।
जिनि असे जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहिं सँवारी ।।
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरबर सोई हंसा ।।

मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेटि गहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(i) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पति-वियोग से पीड़ित नागमती को उनकी सखियाँ क्या धीरज बँधाती हैं?
(iv) आकाश पृथ्वी से किस रूप में वापस आ मिलता है?
(v) पपीहा अपनी प्यास कैसे बुझाता है
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – रानी नागमती पति-वियोग से पीड़ित है। उसकी सखियाँ उसे धीरज बँधाती हुई कहती हैं कि पटरानी जी! आप अपने हृदय में इतनी निराश न हों। धैर्य धारण कर स्वयं को सँभालिए। जब बिछुड़े हुए पति तुम्हें पुनः मिलेंगे तो वे (द्विगुणित अनुराग से) तुम्हें प्रगाढ़ आलिंगन में बाँध लेंगे; क्योकि जो मृगशिरा नक्षत्र में (ज्येष्ठ मास) की तपन सहते हैं, वे आर्द्रा नक्षत्र (आषाढ़) की वर्षा से पुनः पल्लवित (हरे-भरे) हो उठते हैं।
(iii) पति-वियोग से पीड़ित नागमती को उनकी सखियाँ यह धीरज बँधाती हैं कि महारानी आप निराश मत होइए। महाराज आपके पूर्व स्नेह को स्मरण करके पुन: वापस आ जाएँगे।
(iv) आकाश पृथ्वी से मेधों की वर्षा की बूंदों के रूप में वापस आ मिलता है।
(v) पपीहा स्वाति नक्षत्र का जल पीकर अपनी प्यास बुझाता है।

प्रश्न 3:
चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा । साजा बिरह दुद दल बाजा ।।
धूम, साम, धौरे घन धाए । सेत धजा बग पाँति देखाए ।।
खड़ग ‘बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घनघोरा ।।
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत ! उबारु मदन हौं घेरी ।।
दादुर मोर कोकिला पीऊ। गिरै बीजु घट रहै न जीऊ ।।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह मंदिर को छावा ?
अद्रा लाग लागि भुईं लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई ?

जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सबै ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) आषाढ़ के महीने में नागमती को बिजली की चमक तथा मेघों की गड़गड़ाहट कैसी प्रतीत होती
(iv) आषाढ़ माह में चारों ओर किनकी आवाजें सुनायी पड़ती हैं?
(v) आषाढ़ माह में कौन-सी स्त्रियाँ गर्व का अनुभव करती हैं?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – राजा रत्नसेन पद्मावती को पाने के लिए योगी बनकर सिंहलगढ़ की ओर चले गये हैं। लम्बे समय तक न लौटने पर रानी नागमती शंकित होती है तथा विरह की अग्नि में जलने लगती है। आर्द्रा नक्षत्र के उदय होने पर घनघोर वर्षा होती है। ऐसे वातावरण में उसकी विरह-वेदना और बढ़ जाती है। वह अनुभव करती है कि जिन स्त्रियों के पति घर पर होते हैं। वे ही सुखी होती हैं। उन्हीं को पत्नी होने का गौरव प्राप्त होता है। विरहिणियों को तो दु:खी जीवन ही बिताना पड़ता है। मेरा पति बाहर है तो मैं तो सभी सुख भूल गयी हूँ।
(iii) आषाढ़ के महीने में नागमती को बिजली की चमक तलवार जैसी दिखाई पड़ती है तथा मेघों की गड़गड़ाहट युद्ध के जुगाड़ों के समान प्रतीत होती है।
(iv) आषाढ़ माह में चारों ओर मेंढ़क, मोर तथा कोयलों की आवाजें सुनायी पड़ती हैं।
(v) आषाढ़ माह में जिन स्त्रियों के पति घर पर हैं, वे गर्व का अनुभव करती हैं।

प्रश्न 4:
भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चॅदन भा आगी ।।
सुरुज जरत हिवंचल तांका । बिरह बजागि सौंह रथ हाँका ।।
जरत बजागिनि करु पिउ छाहाँ ।आइ बुझाउ अँगारन्ह माहाँ ।।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि ते करु फलवारी ।।
लागिउँ जरै जरै जस भारू | फिर फिर पूँजेसि, तजेउँ न बारू ।।
सरवर हिया घटती निति जाई । टूक टूक , होइ के बिहराई ।।
बिहरत हिया करहु पिउ ! टेका।’ दीठि दवॅगरा मेरवहु एका ।।

कॅवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गयउ सुखाइ।
कबहुँ बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) वैशाख माह में कौन भाड़ में पड़े दाने के समान भुन रहा है?
(iv) विरह के ताप में कौन उत्तरोत्तर सूखता जा रहा है?
(v) किसके सींचने पर बेल फिर से हरी हो सकती है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – वैशाख मास की प्रचण्ड गर्मी में अपनी दशा का वर्णन करती हुई विरहिणी नागमती कहती है कि मानसरोवर में जो कमल खिला था, वह जल के अभाव में सूख गया। आपके सम्पर्क में आकर मुझे जो प्रेम मिला था, अब वही विरह के कारण नष्ट होता जा रहा है। वह बेल फिर हरी-भरी हो सकती है, यदि प्रिय स्वयं आकर उसे सींचें।
(iii) वैशाख माह में नागमती विरह वेदना के कारण भाड़ में पड़े चने के समान भुन रही है?
(iv) विरह के ताप में नागमती का हृदयरूपी सरोवर उत्तरोत्तर सूखता जा रहा है।
(v) पिय के स्वयं आकर सींचने पर बेल फिर से हरी हो सकती है।

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